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आलोचना

आईने में प्रतिबिंबित अक्स से सवाल कि ‘पार्टनर, तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है?’

रोहिणी अग्रवाल


1. " दुनिया में कोई ऐसी कलुषता नहीं थी जिस पर उलटी हो जाए - सिवाय विस्तृत सामाजिक शोषणों और उनसे उत्पन्न दंभों और आदर्शवाद के नाम पर किए गए अन्य अत्याचारों, यांत्रिक नैतिकताओं और आध्यात्मिक अहंताओं की तानाशाहियों को छोड़ कर।" ( अँधेरे में, मुक्तिबोध : प्रतिनिधि कहानियाँ, पृ. 33)

2. " आजकल हमारे अवचेतन में हमारी आत्मा आ गई है, चेतन में स्वहित, और अधिचेतन में समाज से सामंजस्य का आदर्श - भले ही वह बुरा समाज क्यों न हो? यही आज के जीवन-विवेक का रहस्य है।" ( क्लॉड ईथरली, वही, पृ. 79)

3. "( गांधीवादी दर्शन) गरीबों के लिए बड़े काम का है। वैराग्य भाव, अनासक्ति और कर्मयोग सचमुच एक लौह-कवच है, जिसको धारण करके मनुष्य आधा नंगापन और आधा भूखापन सह सकता है। सिर्फ सहने की बात नहीं, वह उसके आधार पर आत्मगौरव, आत्मनियंत्रण और आत्मदृढ़ता का वरदान पा सकता है। ...मृत्यु उसके लिए केवल एक विशेष अनुभव है। गरीबी एक अनुभवात्मक जीवन है।" ( सतह से उठता आदमी, वही, पृ. 102)

4. " आदिवासियों जैसे उस अमिश्रित आशावाद में मुझे आत्मा का गौरव दिखाई देता है, मनुष्य की महिमा दिखाई देती है, पैने तर्क की अपनी अंतिम प्रभावोत्पादक परिणति का उल्लास दिखाई देता है - और ये सब बातें मेरे हृदय को स्पर्श कर जाती हैं।" ( पक्षी और दीमक, वही, पृ. 68)


मैं स्वीकारती हूँ कि कविता की तरलता में पगी मुक्तिबोध की कहानियों को पढ़ना सरल काम नहीं है। वे समुद्र की गहराइयों-सी अतल हैं, और कुशल गोताखोर हुए बिना उनके मर्म तक पहुँचना संभव नहीं। लेकिन उससे पहले तो लहरों का रौरव शोर और एक-दूसरे को पछाड़ कर खुद को प्रतिस्थापित करती होड़ से जूझना पड़ता है। मैं तय नहीं कर पा रही हूँ कि अभी जो नैरेटर अपने को 'भूत जैसा अप्राकृतिक' बता कर गया है, क्या वही मुक्तिबोध हैं? या वह शिल्पी जो अभाव की मिट्टी को आँसुओं के जल से गूँध कर अपनी तस्वीर उकेर रहा है - "थके कंधे, जिन पर पीली मिट्टी का सा चौड़ा चेहरा, उस पर कोयले के से दो दाग" (काठ का सपना)? लेकिन इस तीसरी लहर का क्या करूँ जो उमड़ कर आते ही दोनों चित्रों को मिटा देती है, और आत्महत्या के लिए उत्सुक उस पगले को फोकस में ले आती है जो आखिरी पल सिर्फ इसलिए जिंदगी की दौड़ में कूद पड़ता है कि वह मर गया तो साथ-साथ प्यार भी मर जाएगा, और उम्मीद का बिरवा भी। (समझौता) या फिर वह हैं मुक्तिबोध जो 'प्रूफ कॉपी में टूटे हुए अक्षर' सरीखी अपनी वशंज पीढ़ी से अनुरोध कर रहा है कि "तुम्हारी जन्मभूमि जमीन और धूल और पत्थर से बनी यह भारत की धरती ही नहीं है, वह है - गरीबी। तुम कटे-पिटे दागदार चेहरे वालों की संतान हो। उनसे द्रोह मत करना। अपने इन लोगों को मत त्यागना।" (जंक्शन) लेकिन यह क्या? वह व्यक्ति तो उधार लिए गए 'ठाठ' (कीमती ओवरकोट और नरम-गरम बिस्तर) पर इतराता सामंत बन गया है, और करुणा-सहानुभूति के आवेग से बिना भीगे वर्ग-व्यवस्था को बनाए रखने की कूद-फाँद कर रहा है।

मैं लहरें गिनना छोड़ समंदर में गोता लगा देती हूँ। भीतर छाती को मथती वेदना का शोर नहीं है। अपनी शिनाख्त होते ही वे तरल-रंगीन आलोक-रश्मियों में फूट पड़ी हैं, और इन्हीं में दिपदिपाते खड़े हैं मुक्तिबोध।

मुक्तिबोध यानी वैचारिकता, दार्शनिकता और रोमानी आदर्शवाद के साथ जीवन के जटिल, गूढ़, गहन, संश्लिष्ट रहस्यों की बेतरह उलझी महीन परतों की सतत जाँच की हठपूर्ण अपराजेय संकल्पदृढ़ता!

1.

" हर आदमी एक-दूसरे की परिस्थिति है, एक-दूसरे का परिवेश है" ( सतह से उठता आदमी) बनाम " हममें जनतांत्रिक संस्कृति की कमी है।" ( उपसंहार)


अकस्मात मैं चौंक उठती हूँ। नेहरू जी और मुक्तिबोध का मृत्यु-वर्ष एक ही - 1964। भारतीय राजनीति यदि नेहरू-युग के अंत के साथ मोहभंग की पीड़ा को मूल्यों के विघटन में पिरो कर एक नई यात्रा पर चल निकली, तो साहित्य में भी मुक्तिबोध जैसी प्रतिबद्धताएँ आत्मघाती ईमानदारी के साथ फिर कहाँ देखने को मिलीं। मुक्तिबोध नेहरू के अनुयायी नहीं हैं, लेकिन सैंतालीस वर्ष की जीवनावधि तक स्वतंत्रता के लिए सिर पर कफन बाँध कर जूझते भारत के राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन को उन्होंने खुली आँखें से देखा है। अपनी निर्मिति के दौर में उन्होंने देखा है कि भौतिक अभावों से बेपरवाह आजादी के दीवाने त्याग और संघर्ष को, महानता और कर्मठता को, आदर्श और वैचारिक क्रांति को लक्ष्य बना कर भारत की सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक संरचना में आमूलचूल परिवर्तन कर देना चाहते हैं। आजादी यानी देश के आखिरी व्यक्ति तक पहुँची गरिमा और आत्मसम्मान की लहर। आजादी यानी अपनी मनुष्यता के साथ-साथ दूसरों की 'नाक' को बचाए रखने की नाजुक एहतियात! सपने, आदर्श और रोमान अध्यवसाय बन कर मुक्तिबोध में जड़ें जमाते हैं तो वैचारिक दर्शन बन कर उन्हें जीवन से जोड़ते भी हैं। जीवन उनके लिए निजी साँसों की डोर नहीं, सामंजस्यपूर्ण संबंध में गुँथी अस्मिताओं का कलरव है। लेकिन दरकन... टूटन... स्खलन... मोहभंग का विस्तार! स्वतंत्र भारत में वह सब तो नहीं जिसके लिए जी-जान लगा दी गई थी। राजनीति सत्ता और पूँजी का गठबंधन कर जिन मूल्यों से अपनी खुराक खींच रही है, वे सब तो भ्रष्टाचार और शोषण के सामंती मूल्यों के अँधेरों में पलते हैं। राजनीतिक व्यवस्था समाज-कल्याण के बड़बोले दावों के साथ जिन विकास-योजनाओं को शुरु कर रही है, वे अपने गंतव्य - आम आदमी - तक तो पहुँच ही नहीं रही। गरीबी आज भी आम आदमी के ललाट पर श्मशान की निर्जनता और भयावहता की लिपि लिख रही है।

मेरे हाथ मुक्तिबोध की कहानियों को पढ़ने की कुंजी लग गई है। बेशक, इन कहानियों की आउटलाइंस प्राथमिक स्तर पर मोहभंग की पीड़ा से उकेरी गई हैं। मोहभंग यानी आस्था पर जबरदस्त आघात! आस्था, जो व्यक्तिगत सुख-लाभ में नहीं डूबती, समग्रता को एक इकाई मान कर सहेजती है। एक के बाद एक तीन कहानियाँ मेरे सामने आ खड़ी हुई हैं - समझौता, पक्षी और दीमक, और सतह से उठता आदमी। कहीं ग्रांट मंजूर कराने के लिए मुट्ठियाँ गर्म कराने का सिलसिला (पक्षी और दीमक); कहीं व्यवस्था के लौह-शिकंजे में जकड़ कर मनुष्य को 'पशु' बनाए जाने की ट्रेनिंग (समझौता); कहीं बिकने के लिए तैयार बैठा अवसरवादी बुद्धिजीवी (सतह से उठता आदमी) तो कहीं उस 'भगवे खद्दर कुरतेवाले' के आतंक तले अपने को तिल-तिल क्षरित करती बेबसी। बीच में कहीं अ-चर्चित कहानी 'भूत का उपचार' भी है जो बेहद तिर्यक चितवन के साथ नौकरशाही के बचे-खुचे राज भी उगल देती है - "हमारे छोटे से दफ्तर में बड़ी इंट्रीग्स चलती हैं। या तो कुंडली देखते हैं लोग-बाग या लड़कियों की चर्चा होती है, या व्यूह-रचना होती है।" मैं थम कर सोचने लगी कि इस भविष्यवक्ता कलाकार ने पचास साल आगे के वक्त की भविष्यवाणी की है, या वक्त को आगे ले जाने में अक्षम हम लोग ही पिछले वक्तों में जी रहे हैं?

मुक्तिबोध मानते हैं कि हर व्यक्ति का अपना व्यक्तिगत इतिहास है और हरेक के व्यवहार का अपना-अपना औचित्य भी। ऊपरी तौर पर अलग-अलग दीखते हुए भी अमूमन हर आदमी एक-दूसरे की परिणति है, और एक-दूसरे का परिवेश भी। इसलिए यह निर्णय करना संभव नहीं कि कौन सही है और कौन गलत। हाँ, इतना तय है कि विघटन की प्रक्रिया में अपनी-अपनी जगह स्थिर खड़े रहते हुए भी वे एक-दूसरे के साथ गहरे जुड़ जाते हैं। मुक्तिबोध देखते हैं कि साम्यवादी राह पर वैचारिक क्रांति करने निकला बुद्धिजीवी अचानक अपनी ही किन्हीं ग्रंथियों/दुर्बलताओं का शिकार होकर निष्क्रिय निषेधवादी बन जाता है; और घनघोर गरीबी के अभिशाप से मुक्ति पाने के लिए अवसरों की तलाश में रेंग कर आगे बढ़ता व्यक्ति किसी धन-कुबेर के किले में जरा सी दरार देख पानी की तरह घुस जाता है। दिक्कत तब आती है जब तमाम चैतन्य मुद्राओं के बावजूद वह स्वतंत्रचेता बुद्धिजीवी (रामनारायण) तय नहीं कर पाता कि "पूँजीवाद के विरुद्ध, धन-सत्ता के विरुद्ध, उसकी अपनी सत्ता के विरुद्ध उसकी यह प्रतिक्रिया क्या सचमुच सिद्धांत और आदर्श के अनुसार है? निषेध और निषेध करके वह क्या सचमुच शोषितों का उपकार कर रहा है?" (सतह से उठता आदमी) न, दरअसल उसका सारा बौद्धिक प्रपंच इस सवाल की नुकीली नोक से अपने को बचा लेने की जुगत है। वह जानता है, सही दिशा के अभाव में अपने अनुयायियों को 'कुंठित' और 'बिकाऊ' बनाने के अतिरिक्त वह समाज को कोई सकारात्मक योगदान नहीं दे रहा है। वह यह भी जानता है कि जब तक विद्रोह रचनात्मक स्वप्नशीलता के साथ जुड़ कर जमीनी संघर्ष और सक्रियता का रूप नहीं लेता, तब तक निषेधवादी आलोचना बन कर अपनी ही ऊर्जा के मूल स्रोतों को खाता रहता है।

मैं अनायास रामनारायण के चेहरे में यू.आर. अनंतमूर्ति के कन्नड़ उपन्यास 'संस्कार' के नारणप्पा का चेहरा पढ़ने लगती हूँ। बोहेमियन जीवन-दृष्टि को वैचारिकत उदारता का पर्याय मानते हुए नारणप्पा सृजन को नहीं, उपभोग को अपना जीवन-लक्ष्य मानता है। दंभ अलबत्ता कूट-कूट कर भरा है - विशिष्ट होने का, ज्ञानवान (वैल-इन्फार्म्ड) होने का, और कुलीनता के तमाम आग्रहों को तोड़-फेंक कर आम आदमी से जुड़ जाने का। इसलिए श्रीपति आदि दिशाहीन युवा पीढ़ी को वह जिन मूल्यों की थाती सौंपता है, वे उपभोगवाद और आत्मसंकीर्णता के जरिए समाज को बाँटने और तोड़ने का विष ही फैलाते हैं। मुक्तिबोध कथा का वितान फैला कर रामनाराण की कुंठाओं और ग्रंथियों को एक-एक कर पाठक के सामने उपस्थित नहीं करते, बल्कि कथा के केंद्र में रखने के बावजूद वे उसे सूच्यपात्र बना कर छोड़ते हैं। इसका प्रमुख कारण यही है कि व्यक्ति की अपेक्षा व्यक्ति को संचालित करने वाली मनोवृत्तियों और विचार की तह तक पहुँचना उन्हें अधिक प्रिय है। नैरेटर की चेतना को दो भागों में विभाजित करके या दो पात्रों के बीच डिबेट का आयोजन करवा कर वे समस्या को रेशा-रेश और अलग-अलग कोणों से देख लेना चाहते हैं।

इसलिए रामनारायण का समूचा व्यक्तित्व इस सवाल में सिमट जाता है कि क्या निहिलिज्म किसी भी क्रांतिकारी दार्शनिक की शैली हो सकता है? इसी प्रक्रिया में नैरेटर कन्हैया और रामनारायण का प्रतिपक्षी कृष्णस्वरूप अपनी-अपनी कन्विक्शंस को जीती दो भिन्न जीवन-दृष्टियाँ बन जाती हैं जिनके पास स्थिति के विश्लेषण के लिए अपने-अपने तर्क हैं। मुक्तिबोध कहानी में अपने को छुपाने की चेष्टा नहीं करते, बल्कि वे प्रयासपूर्वक किसी एक पात्र (बहुधा नैरेटर) के भीतर स्वयं को प्रत्यारोपित कर वाद-विवाद को गहरे ले जाते हैं। दरअसल मुक्तिबोध के लिए कहानियाँ मनन का एक मंच हैं। चूँकि एक पारदर्शी तल्लीनता के साथ वे पात्र का व्यक्तित्व और विचार का चरित्र रचते हैं, अतः उनके शारीरिक विन्यास से परिचित होते ही पाठक समझ जाता है कि लेखक उसके अंतस को किस रंग में चित्रित करने वाले हैं। अचरज नहीं कि बहुत जल्द रामनारायण के चेहरे का 'भयानक अनगढ़पन' और 'एक विचित्र विद्रूपता' उसके वैचारिक बौनेपन को उजागर करने लगती है। वह स्खलनों और दरकनों से अटे एक बौद्धिक आतंक का पर्याय भर बन जाता है जो घृणा से उबलती अपनी कुंठाओं को छिपाने के लिए आलोचना में सैडिस्टिक प्लैजर ढूँढ़ता है और अपनी क्षुद्रताओं का अतिक्रमण न कर पाने की अक्षमता के कारण महानता के नकाब के नीचे मन ही मन और छोटा होता चलता है। पाखंड और जड़ता ताकत के सहारे अपने खिसकते आधार को बनाए रखने का जतन करते हैं, ठीक वैसे ही जैसे आत्मरतिग्रस्तता संवेदनहीनता बन कर बर्बरता में ढल जाया करती है। नौकरशाही के लुंपेन चरित्र पर छींटाकशी करने वाले मुक्तिबोध रामनायाण जैसे सूडो क्रांतिकारियों को हल्के ढंग से नहीं ले सकते। वे मानते हैं अतिशय भोग से अघा कर अभावों की दुनिया में 'पिकनिक' मनाने निकले ऐसे लोग देर-सबेर अपने 'साम्राज्य' को सँभालेंगे ही, लेकिन इस दौरान कृष्णस्वरूप जैसी अभाव की संतानों को लालसा की दौड़ में बदहवास दौड़ा कर उन्हें अपने 'गुप्त षड्यंत्र' में साझीदार बना लेंगे। "मेरे ख्याल से तुम दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हो। आज रामनारायण ने तुम्हें चिढ़ाने के लिए सूट पहना है, कल वह तुम्हें नीचा दिखाने के लिए अपनी जायदाद खुद सँभाल लेगा। और तब चक्र पूरा घूम जाएगा। अगले दस साल के बाद मुझे रिपोर्ट देना।" ठीक कहते हैं मुक्तिबोध! बुद्धिजीवी (टैक्नोलॉजी की संतान) होने का दंभ भरता यह वर्ग (रामनारायण) आज जिस तेजी से जन-हित के नाम पर व्यापक जन-शोषण करते हुए अपनी निष्ठाओं को 'कैमाफ्लाज' कर रहा है, और पूँजी को संगठित पूँजी का रूप देने के लिए सत्ता और धर्म के दलालों (कृष्णस्वरूपों) को मलाईदार रोटी के टुकड़ों पर पाल रहा है, वह मानो चेता देने के लिए काफी है कि आम आदमी की राजनीतिक तटस्थता व्यवस्था को विघटित करने में अप्रत्यक्ष भूमिका निभाती है।

पैनी आब्जर्वेशन क्षमता के धनी मुक्तिबोध देख रहे हैं कि राजनीतिक व्यवस्था बेहद शाइस्तगी के साथ आम आदमी को 'पशु' बनाने की ट्रेनिंग दे रही है। उसकी संवेदनाओं को 'जड़ीभूत सूनेपन में परिवर्तित' कर देने का यह खेल आज सहमति पाकर इतना लोकप्रिय और वैध हो गया है कि ब्यूरोक्रेसी की दैत्याकार मशीन में ऊपर-तले की विषमतामूलक स्थितियों में फिट होकर भी 'भाईचारे' का मजमा जोड़ लिया जाता है - "अगर पशु की जिंदगी ही बितानी है तो ठाठ से बिताए, आपस में समझौता करके।" मुक्तिबोध का आक्रोश शेर-रीछ सरीखी नौकरशाही पर नहीं, 'भगवा खद्दर कुरतेवाले' नेताजी पर है जो रामनारायण और कृष्णस्वरूप के गुँथे हुए रूप की स्थूल अभिव्यक्ति है।

लेकिन शायद यह पूर्ण सत्य नहीं। मुक्तिबोध समझना चाहते हैं कि भगवा खद्दर कुरतेवाले के भीतर ताकत का संचार करती बेबसी क्यों इतनी मूल्यवान होती है कि उसके एवज में इनसान अपनी गरिमा को खो दे? "मैं उसके प्रति वफादार रहूँगा क्योंकि मैं उसका आदमी हूँ। भले ही वह बुरा हो, भ्रष्टाचारी हो, किंतु उसी के कारण मेरी आमदनी के जरिए बने हुए हैं। भक्ति-निष्ठा भी कोई चीज है, उसके कारण ही मैं विश्वास-योग्य माना गया हूँ। इसी कारण मैं कई महत्वपूर्ण कमेटियों का सदस्य हूँ।" (पक्षी और दीमक) न, यह पशु का क्रंदन नहीं, गंदी नाली में बिलबिलाते कीड़ों की रिरियाहट है।

तो क्या गिरने की प्रक्रिया शुरु हो जाने के बाद किसी बिंदु पर रुकना नहीं जानती?

मुक्तिबोध के पास सवालों का जखीरा है, और उससे भी कई-कई गुणा ज्यादा धीरज। सवाल उन्हें परेशान नहीं करते, परेशानी को हल करने का जरिया बनते हैं। इसलिए अपने रचयिता की बेचैनियों, प्राथमिकताओं, राजनीतिक समझ और चिंताओं को व्यक्त करने के बावजूद 'समझौता' और 'सतह से उठता आदमी' मुक्तिबोध को द्रष्टा या 'संत' मत) के रूप में नहीं उभार पाती। वे यहाँ अधिक से अधिक अपने समकालीनों की तरह समय के व्याख्याकार बन जाते हैं। मैं इन कहानियों को मुक्तिबोध के भीतर उतरने का प्रवेशद्वार मानती हूँ। वहीं कहीं दिखाई पड़ता है असली मुक्तिबोध जो अपनी अकिंचनता को झाड़ कर अँगड़ाई लेता है तो आँखों में धधकती 'मैली आग' तलस्पर्शी साफगोई बन कर झूठ के मनोहारी लबादे को तार-तार कर देती है। बेहद बेलौस, बेमुरव्व्त अंदाज-ए-बयां - "झूठ से सचाई और गहरी हो जाती है, अधिक महत्वपूर्ण और अधिक प्राणवान, मानो वह हमारे लिए और सारी मनुष्यता के लिए विशेष सार रखती हो। ऐसी सतह पर हम भावुक हो उठते हैं ...एक हो जाते हैं"। (पक्षी और दीमक)

2.

" अपने भीतर की जड़ प्रकृति पर विजय प्राप्त करने में असफल हो जाना मानवीय है" ( अँधेरे में) क्योंकि " स्वयं का चरित्र-ज्ञान होना बड़ा मुश्किल है।" ( भूत का उपचार)


कहानियों के भीतर गहरे उतरते हुए मुझे कुछ और चीजें दीखने लगी हैं। निर्जनता, अँधेरे की चादर और भाँय-भाँय करता सन्नाटा; मानो हर पल रहस्यात्मकता को गहरा देने का खेल रच रही हो प्रकृति! और फिर जरा सा प्रकाश और रव (कोलाहल) पाते ही वह माहौल किन्हीं खंडित/धुँधले आइनों से पट जाता है जहाँ से प्रतिबिंबित होती हैं उतनी ही खंडित, विकृत, भुतहा आकृतियाँ। नारसिसोन्माद पैदा करते आईने नहीं, बल्कि "दिल के किसी कोने में कोई अँधियारा गटर" खोलने वाले आईने। यह गटर है आत्मालोचन, दुख और ग्लानि का।

सचमुच कमाल के कथाशिल्पी हैं मुक्तिबोध। वातावरण को पात्र बना कर कहानी में ले आते हैं, और फिर उसे ही चुनौती का रूप देकर कथानायक को लड़ने की दिशा और प्रेरणा देते हैं। निर्जनता को संवादरत सघन ऐकांतिकता से, अँधेरे को आत्मावलोकन की प्रकाश-रश्मियों से, और सन्नाटे को जीवन के राग से परास्त किया जा सकता है। बस, सधी दृढ़ता के साथ साफ-साफ पता होना चाहिए कि मैं क्या चाहता हूँ और क्या नहीं चाहता। अभीष्ट को पहचानने और पाने की प्रक्रिया में जो दृढ़ निश्चयात्मकता आत्मविश्वास का प्रकाश-पुंज बन कर व्यक्तित्व को भासमान करती है, वहाँ द्वंद्व और दिशाहारा होने की विकलता शेष नहीं रहती। मुक्तिबोध बाहर की निर्जनता में घनघोर सन्नाटा बुनते हैं ताकि भीतर की मद्धम आवाजों को सुन सकें। "उसको जहाँ जाना था, वहाँ का रास्ता उसे नहीं मिल सकता था" - भीतर के अँधेरे अनसुना रह जाने पर ही आत्मदया और पराजय के विकल्प चुनते हैं। इसलिए मुक्तिबोध सबसे पहले भीतर की अँधेरी दुनिया में पलती दमित वासनाओं और विकृतियों की आँख में आँख डाल संवाद कर लेना चाहते हैं। वह देखते हैं, उनके अंदर घर से विद्रोह करके भागा एक युवक बैठा है जो महानगर की संघर्षसंकुल जिंदगी जीते-जीते स्वयं ऐसा टूटा-फूटा यंत्र बन गया है कि भावनाओं में बहना और उनका आदर्शीकरण करना उसे बचकाना लगता है। वह विश्वास दिलाता है बार-बार स्वयं को कि रिश्ते नहीं, "रोज का कठिन, शुष्क, दृढ़ जीवन उसे एक विशेष तरह का आत्मविश्वास देता' है (अँधेरे में), लेकिन पराई बसावटों के गरीबी से जूझते-चहकते घर के किसी आँगन को देख पाता है कि "जल के निर्मलिन सहस्र स्रोतों सी भावना" उसके मन में आ गई है।

आत्मविश्लेषण और आत्मस्वीकार - यह है मुक्तिबोध की कथा-यात्रा का दूसरा पड़ाव, जिसे एक गहरी अर्थव्यंजक सक्रियता के साथ रखती हैं दो कहानियाँ - 'अँधेरे में, और 'क्लॉड ईथरली'। चूँकि मुक्तिबोध अपने को सान पर चढ़ा कर कई-कई कोणों से जाँचने की चेतना का नाम हैं, इसलिए इन दोनों कहानियों का शिल्प भी आश्चर्यजनक ढंग से अलग-अलग है। 'अँधेरे में' दबे पाँव अपने भीतर के अँधेरों में उतरते चले जाने की कहानी है जहाँ खौफ दो रूपों में कुंडली मार कर बैठा है। एक, "ढीले-ढाले, सुस्त, मध्यवर्गीय आत्मसंतोषियों' की-सी बीभत्स बेहयाई से हर्षित होते रहने का पाप, और दूसरा, बाहर के अँधेरों में विलीन कर दी गई मानव-अस्मिताओं से संवाद न कर पाने का पाप। जड़ों की तलाश में पाँच बरस बाद अपने पुराने शहर लौटा यह युवक अभी भी द्वंद्व की भूलभुलैयाँ में चक्कर काँट रहा है। फिलहाल अपने साथ आत्मतुष्ट मध्यवर्ग की विशाल ताकत को जोड़कर अपनी स्थिति मजबूत कर रहा है। अँधेरे से ढके रास्ते को टटोल-टटोल कर आगे बढ़ते इस युवक को मुक्तिबोध सहानुभूति नहीं देते। शायद वे उससे क्रोधित हैं कि स्थितियों के सामान्य स्वीकार की अपेक्षा क्यों नहीं वह इस सवाल पर विचार करता कि चाँदनी रात के बावजूद रास्ते अँधेरे क्यों हैं? चंद्रमा की चाँदनी तो सर्वसुलभ प्राकृतिक संसाधन है। फिर उस पर अट्टालिकाओं का ही आधिपत्य क्यों? और क्यों बहुसंख्य आबादी उन अट्टालिकाओं से प्रत्यावर्तित प्रकाश को ही अपना प्रसाद मान कर प्रसन्न हो? लेकिन अपने एकांत से मुखातिब वह युवक अपने रचयिता के उद्वेग को नहीं जानता। चलते-चलते सहसा वह काँप उठा है। पैरों तले सड़क की कठोरता की बजाए जो नरमाई आई है, वह सड़क पर सोया कोई भिखारी-परिवार है। कुचल कर आगे बढ़ने के बाद वह लगातार पश्चाताप कर रहा है कि "क्यों नहीं इतने सब भूखे, भिखारी जग कर, जाग्रत होकर उसको डंडे मार कर चूर कर देते? क्यों उसे अब तक जिंदा रहने दिया गया?" मुझे लगता है, यहाँ मुक्तिबोध ठठा कर हँस पड़े हैं। फिर हँसी को तंज बना कर पन्नों में कुछ शब्द टाँक देते हैं - "वह पुण्यात्मा विवेक-शक्ति केवल काँप रही थी।" मैं उनके तंज को मशाल बना कर अपने वक्त के अँधेरों में ऐसे कितने की 'हिट एंड रन' केस देख पा रही हूँ जहाँ अदालती कार्यवाही में 'सुपरिचित' अमीरजादे अपराधी की शिनाख्त बरसोंबरस की मशक्कत के बाद भी नहीं हो पाती।

सहसा यह क्या हुआ! मुक्तिबोध तो अपने अँधेरे तलघर में अकेले उतरे थे। फिर उसमें एक पूरी उच्चमध्यवर्गीय स्नॉब पीढ़ी का सच कैसे उभर आया?

'अँधेरे में' के विपरीत 'क्लॉड ईथरली' फैंटेसी के जरिए प्रकाश-वर्ष (सूर्य के प्रकाश की गति को मापने का वैज्ञानिक पैमाना) की गति से काल और भूगोल-रचित तमाम दूरियों को पाट कर आने वाली चमकदार कहानी है। पीली प्रखर धूप में चमकती इमारतें, चाय की गुमटी पर अड्डेबाजी, और सहयात्री के संग रास्ता नापने के दौरान गपशप का आनंद! बातों में अखबारी खबरों से लेकर रहस्य-रोमांच-सनसनी और कपोल कल्पनाधारित किस्से। मुक्तिबोध सहयात्री के रूप में एक 'जनाना' से सी.आई.डी. इंस्पेक्टर को चुनते हैं - ऐसा "नारीतुल्य पुरुष, जिनका विकास किशोर काल में ही रुक जाता है", और फिर कहानी के अंत तक आते-आते उसकी ठोस भौतिक इयत्ता को नैरेटर की चेतना के अर्धांश में बदल देते हैं। मैं हठात सोच उठती हूँ, क्यों मुक्तिबोध ने 'स्त्री' और 'किशोर' को दो स्थितियाँ बना कर उस हमराही में आरोपित किया? क्या इसलिए कि स्त्री संवेदना का साकार रूप है, और किशोर तमाम पूर्वाग्रहों-दुराग्रहों की विष भरी बाड़ से सर्वथा स्वतंत्र उन्मुक्त उड़ान भर लेने की नैसर्गिक ऊर्जस्विता? मुक्तिबोध बाहर की तमाम हलचलों को सवाल बनाकर भीतर उतरते हैं तो "अणु युद्ध का विरोध करने वाली आत्मा की आवाज" क्लॉड ईथरली (पागलखाने में बंद मानसिक रोगी जो असल में द्वितीय विश्व युद्ध का 'वार-हीरो' अमरीकी पायलट है जिसने मित्र राष्ट्रों की ओर से हिरोशिमा और नागासाकी पर बम गिराए और फिर बमवर्षा के भयावह परिणामों को देख आत्म-धिक्कार की आग में जलने लगा।) बन उनसे अपनी रिहाई की माँग करने लगती है। क्लॉड ईथरली उस सहयात्री के भीतर प्रविष्ट होकर नैरेटर को बताता है कि कुछ बेहतर और असाधारण करने की हमारी बेचैनी किसी मानसिक रोग का लक्षण नहीं, 'आध्यात्मिक उद्विग्नता' का प्रतीक है जो पूरी व्यवस्था के मौजूदा अमानवीय स्वरूप को बदल डालना चाहती है। इंस्पेक्टर नहीं, मुक्तिबोध ही क्लॉड ईथरली उर्फ मुक्तिबोध को बता रहे हैं कि "हमारे अपने-अपने मन-हृदय-मस्तिष्क में ऐसा ही पागलखाना है जहाँ हम उन उच्च, पवित्र और विद्रोही विचारों और भावों को फेंक देते हैं जिससे कि धीरे-धीरे या तो वे खुद बदल कर समझौतावादी पोशाक पहन सभ्य, भद्र हो जाएँ, यानी दुरुस्त हो जाएँ, या उसी पागलखाने में पड़े रहें।"

यह तो सीधे-सीधे अपने खिलाफ ट्रायल शुरू कर देने का निमंत्रण है। अपने आपको जस्टीफाई करती परतों को खोलते चलो तो पता चलता है कि शोषण और पापाचार का विरोध न कर पाने की हमारी अक्षमता कुंठा बन कर हमारे ही भीतर पाखंड और दमन के समानांतर साम्राज्य विकसित करती जा रही है।

मैं देखती हूँ, कहीं से भी यात्रा शुरू करें मुक्तिबोध, घूम-फिर कर आत्म-स्वीकार के उसी बिंदु पर आ जाते हैं जहाँ सारे जमाने की क्रूरता के प्रति खफगी अपनी ही दैन्यपूर्ण कारस्तानियों का अक्स बन जाती है। कहानी के केंद्र में स्थित यह चिंतक कहानीकार मुझे बाँधता भी है और डराता भी है। इतनी निर्भीकता और ईमानदारी के साथ अपनी नग्नता को कबूल करना... सचमुच, एक लुप्त हो गई प्रजाति के अंतिम अवशेष हैं मुक्तिबोध।

बेशक! मैं देख रही हूँ, समुद्र की अतल गहराइयों के भीतर एक पनीली रोशनी संगीत की जुगलबंदी के साथ पानी में सतरंगी हिलोरें उठाने लगी है।

3.

" नहीं, मुझमें अभी बहुत कुछ शेष है, बहुत कुछ! ...मैं अभी भी उबर सकता हूँ। रोग अभी असाध्य नहीं हुआ है। ठाठ से रहने के चक्कर से बँधे हुए बुराई के चक्कर तोड़े जा सकते हैं। प्राणशक्ति शेष है, शेष है" ( पक्षी और दीमक)


कामना करने से बुराई के चक्कर तोड़े जा सकते तो कोई भी बुरा बनना न चाहता। बुराई से जूझना पड़ता है - अपने भीतर की तमाम क्षुद्रताओं और तामसी प्रवृत्तियों का संहार करते हुए। अन्यथा 'पंडित' होने का सात्विक ज्ञान भी अहंकार के तमस में चूर होकर 'ब्राह्मण' को 'ब्रह्मराक्षस' बना देता है जो सदियों-युगों-कल्पों तक मुक्ति के लिए किसी एक शिष्य की प्रतीक्षा में अपने ही सुन्न-महल में सिर धुनता रहता है। 'ब्रह्मराक्षस का शिष्य' कहानी में मुक्तिबोध मुक्ति की नई परिभाषा गढ़ते हैं जहाँ अपरिग्रह भाव से वस्तुओं/गुणों/भावनाओं के हस्तांतरण की प्रक्रिया को अबाध बनाए रखने की दायित्वशील चिंता ही मुक्ति है। यह एक ऐसी जीवन-शैली है जहाँ 'देना' त्याग में नहीं, बल्कि दूसरे के साथ अपने रागात्मक संबंध को सुदृढ़ करना है। जाहिर है यहाँ जिजीविषा, उत्साह, उमंग, संघर्ष, दृढ़ता, और आशा की प्रखर चमकीली धूप में सीलन भरी निर्जन कोठरियाँ और रहस्य बुनते अँधेरे कहीं गायब हो जाते हैं। बेशक रास्ता बीहड़ है और मंजिल बहुत दूर, लेकिन लेखक प्रसन्न है कि गंतव्य तक पहुँचाती डगर पाँवों के नीचे है। अब कैसा भी हाहाकार, रुदन और पाखंड उन्हें पसंद नहीं। खासतौर पर साहित्यिक अभिव्यक्ति के नाम पर शोषितों की दुरवस्था पर आठ-आठ आँसू बहा कर उन्हें यथास्थितिवाद के लौह-शिकंजे में बाँधे रखने की चाल! आत्मविश्वास आत्माभिमान को अपनी ताकत बना कर साथ लाता है और वाणी में अपनी प्राथमिकताओं को साफ-साफ बयान कर देने की कुव्वत पैदा करता है - "मैं इस बात का विरोध करता हूँ कि आप निम्नमध्यवर्गीय कह कर मुझे जलील करें, मेरे फटेहाल कपड़ों की तरफ जानबूझ कर लोगों का ध्यान इस उद्देश्य से खिंचवाएँ कि वे मुझ पर दया करें।" (भूत का उपचार)

'दार्शनिक संगति-संवेदन' यानी 'एक सामंजस्य ज्ञान' पर बल देते हुए मुक्तिबोध वक्त की विभीषिका के साथ बहने की बजाए अपने द्वंद्वात्मक संबंध की प्रकृति को जान लेना चाहते हैं। समय यदि प्रलोभनों का चारा फेंक कर हमारी चेतना का आखेट कर लेना चाहता है तो अक्लमंदी उसके जाल में फँसने में नहीं, जाल को ही उड़ा कर ले जाने में है। 'पक्षी और दीमक' मुक्तिबोध की सर्वाधिक सशक्त प्रतीक कहानी है जो व्यक्ति, चिंतक और कलाकार के रूप में उनकी भीतरी उथल-पुथल और जद्दोजहद की साक्षी है। यह कहानी उनकी कथा-यात्रा का तीसरा पड़ाव भी है जहाँ दो प्रतीकों - अच्छाई का पेड़ और पक्षी और दीमक-व्यापारी के जरिए वे मानो आज की उपभोक्तावादी संस्कृति के आप्लावनकारी आक्रमण से बचने की ताईद करते हैं। सबसे पहले बात पक्षी और दीमक-व्यापारी की। "दो दीमकें लो, एक पंख दो' - इस तरह के एक्सचेंज ऑफर प्रत्यक्षतया मूर्खों के सहारे अपने व्यापार को चमकाने के व्यापारिक कौशल तो हैं ही, समर्थ और क्षमतावानों के विवेक को हर कर उन्हें अपने रास्ते से हटाने के लिए भी हैं। दीमक (दैनंदिन उपभोग) के बदले पंख (विचार, संघर्ष एवं सृजन करने की शक्ति) का सौदा संभावनाशील पीढ़ी को नशेड़ी बनाने की साजिश है जिसे वक्त रहते न चीन्हा जाए तो आकाश की ऊँचाइयाँ नापती सृजनशीलता पंख गँवा देने पर साधारण बिल्ली का आसान शिकार बन सकती है। मुक्तिबोध अपनी कहानियों में संदर्भ के तौर पर दंतकथाओं या किस्से-कहानियों का उपयोग भी करते हैं, किंतु विचार की सघन बुनावट में गुँथ कर वे प्रतीक बन जाती हैं, घटनात्मकता के कौतूहल में ढल कर मनोरंजन का टपकता रस नहीं बनतीं। यही नहीं, वे रस से भरी हंडिया पेड़ की सबसे ऊँची डाल पर लटका आते हैं ताकि संवेदनात्मक पहल कर पाठक स्वयं ज्ञानार्जन की मशक्कत करे। चूँकि उनके लिए साहित्य एक दृष्टि और संस्कार है, इसलिए रसलोलुप पाठकों से उन्हें सख्त परहेज है। वे 'मास' के नहीं, 'क्लास' के रचनाकार हैं। जाहिर है इसलिए दृष्टि और रुचि में एक सजग सतर्क चौकन्नेपन की माँग उनकी कहानियों की दुनिया में उतरने की अनिवार्य शर्त बन जाती है।

गहराई की तीसरी परत में उतरती इन कहानियों में ठंडी जलती हुई वाचाल आँखें यहाँ से वहाँ दिखाई पड़ती हैं। "किसी तेज रोशनी से चमकती हुई वे आँखें मानो किसी पागल की हों। फिर भी वे सचेत थीं, अपनी हताशा में सम्मिलित प्रतिरोध से भरी हुई, संपूर्ण निरपेक्ष, किंतु किसी को उसके कर्त्तव्य का भान कराती हुई, निराश और किसी अमूर्त (यानी तुरंत समझ में न आ सकने वाले कि क्यों ऐसा है) क्रोध और क्षोभ में जलती हुई।" (उपसंहार)

यह क्षोभ अपने व्यक्तिगत हानि-लाभ के ब्यौरों की चिंता के कारण नहीं, समूची मानवता को अपने साथ आत्म-परिष्कार की साधना में लीन न कर पाने की अक्षमता के कारण है। मुक्तिबोध ऐसे पागलों की बिरादरी खड़ी कर लेना चाहते हैं जो "आत्मा की आवाज जरूरत से ज्यादा सुन करके हमेशा बेचैन रहा करता है और उस बेचैनी में भीतर के हुक्म का पालन करता है", लेकिन पाते हैं कि अपने पाले में अकेले खड़े हैं। अकेलापन उन्हें भयभीत नहीं करता, वक्त की बंजर-जमीन को अपनी संवेदना और निष्ठा से सींच कर सपनों के बीज बोने की और ज्यादा प्रेरणा देता है। घर के आँगन में पलती अभावग्रस्त नई पीढ़ी को उन्हें ही बताना है कि "काले सल्फ्यूरिक एसिड की भयानक बू-बासवाला वह गटर (घृणा)" पहले पहल विपरीत परिस्थितियों में अपनी बेबसी को जाहिर करती तात्कालिक प्रतिक्रिया के रूप में फूटता है, लेकिन सचेत न रहने पर धीरे-धीरे वह पूरी शख्सियत को अपने में समा लेता है। अभाव, गरीबी, और प्रलोभनों से जूझने का एकमात्र उपाय है व्यक्तिगत स्तर पर इनके दबाव को महसूस करने की बजाए विषमतामूलक व्यवस्था के चरित्र को पहचानने और उसकी बुराइयों को समूल उखाड़ फेंकने की आलोचनात्मक दृष्टि विकसित करना। मुक्तिबोध सपना देखते हैं कि अपने पिता से संघर्ष और 'ज्ञानात्मक संवेदन' की विरासत हासिल कर उनके बच्चे फटेहाल गरीबी के बावजूद कांट, मार्क्स और नेहरू की वैचारिक थाती सँभाले "किसी सुनहले लक्ष्य के लिए लड़ रहे हैं।" समाज की तलछट के साथ एकमेक होकर वे 'उन सब भड़कीले दंभों से घृणा कर रहे हैं जो शिक्षा और संस्कृति के नाम पर चलते हैं।'

मैं हठात थम जाती हूँ। सोचती हूँ, मुक्तिबोध ने सैंतालीस बरस की उम्र न पाकर सत्तासी बरस की उम्र पाई होती तो? अपने सपने की ऐसी भयावह परिणति देख क्या वे पगला न जाते? आज जैसा परिदृश्य हम गढ़ रहे हैं, उसमें 'ज्ञानात्मक संवेदन' और 'संवेदनात्मक ज्ञान' दोनों के लिए कोई जगह नहीं है। है तो भेड़ियाधसान और भेड़चाल। तो क्या पुरखों के स्वप्न-बीजों की नस्ल खराब थी? या उनके सपने शेखचिल्ली की कल्पनाएँ भर थीं? लेकिन मैं यह कैसे स्वीकार करूँ कि आचार और व्यवहार के बीच की फाँक उनकी विरासत को विघटित करती गई? ठीक है कि 'पक्षी और दीमक' कहानी में अपने विचार और व्यवहार की फाँक को उन्होंने खुली आँखों से देखा है, लेकिन उसे दूर करने का बीड़ा भी तो खुद उठाया है न! "कमरे के एकांत में प्रत्यावर्तित और पुनः प्रत्यावर्तित प्रकाश के कोमल वातावरण में मूल-रश्मियों और उनके उद्गम-स्रोतों पर सोचते रहना, ख्यालों की लहरों में बहते रहना कितना सरल, सुंदर और भद्रतापूर्ण है। ...किंतु प्रकाश के उद्गम के सामने रहना, उसका सामना करना, उसकी चिलचिलाती दोपहर में रास्ता नापते रहना और धूल फाँकते रहना कितना त्रासदायक है। पसीने में तरबतर कपड़े इस तरह चिपचिपाते हैं और इस कदर गंदे मालूम होते हैं ...कि अगर कोई इस हालत में हमें देख ले तो वह बेशक हमें निचले दर्जे का आदमी समझेगा। ...लेकिन अब मैं ऐसे कामों की शर्म नहीं करूँगा क्योंकि जहाँ मेरा हृदय है, वहीं मेरा भाग्य है।"

मुक्तिबोध की खासियत है कि अपनी कहानियों में वे मनुष्य के अंतस का एकरेखीय चित्रण करते ही नहीं। जानते हैं कि अलग-अलग परतों, मुखौटों, मनोवृत्तियों और दृष्टियों से निर्मित यह 'मनुष्य' सतह पर भले ही अंतर्विरोधों के साथ अपने को झुठलाता जान पड़े, किंतु यही आम आदमी का यथार्थ है और यही उसके सतत द्वंद्व और असमाप्त वेदना का मूल कारण भी। इसलिए उनकी कहानियों में दो विरोधी युग्म बराबर बने रहते हैं - बेबसी और जिजीविषा, पलायन और सृजन, अभाव और औदात्य, रहस्य और पारदर्शिता।

मुक्तिबोध की कहानियाँ एक साथ 'विचार कहानियाँ' हैं और आत्मकथात्मक भी। 'आत्म' की घनघोर संलग्नता और 'विचार' की निःसंग निर्लिप्तता! सिर्फ विश्लेषण नहीं, संश्लेषण भी। इसलिए उनकी कहानियों में न घटनाओं का मकड़जाल है, न बेवजह पात्रों की भीड़, न बड़बोलापन, न संकोच। वे शब्दों के जरिए नहीं, फैंटेसी के जरिए स्वयं को अभिव्यक्त करते हैं। उनकी फैंटेसियों में यथार्थ से पलायन नहीं, दूनी ताकत और प्रखरता के साथ यथार्थ का पुनर्सृजन है। फैंटेसी उन्हें जीवन-बाधाओं से परिचित करा कर उनसे लड़ने का हौसला देती है। मेरी दृष्टि में मुक्तिबोध के यहाँ फैंटेसी आलोचना का एक विशिष्ट रूप बन कर आती है। दरअसल आलोचना वक्त के फैलाव पर दृष्टि गड़ाए रखते हुए व्यवस्था की गहराइयों में उतरने की विश्लेषणात्मक ताकत का नाम है। अपनी मूल इयत्ता में यह सृजन की पीठिका है। मुक्तिबोध चूँकि जीवन के कड़े आलोचक हैं, इसलिए वक्त के कुशल शिल्पी भी हैं। यह अनायास नहीं कि संगीत, बिंब और स्पंदन - जीवन, सृजन और शिल्प तीनों की तीन आंतरिकताएँ अनकी कहानियों में भी मौजूद हैं। ठीक इसी स्थल पर मुझे एक पेड़ दिखाई देने लगता है। "कटी हुई बाँहों वाले उस पेड़ में से नई डालें निकल कर हवा में खेल रही हैं। उन डालों में हरी-हरी पत्तियाँ झालर सी दिखाई देती हैं ...अजीब पेड़ है, अजीब। ...छाया प्रदान नहीं कर सकता, आश्रय प्रदान नहीं कर सकता ...वह तो कटी शाखाओं की दूरियों और अंतरालों में से केवल तीव्र और कष्टप्रद प्रकाश को ही मार्ग दे सकता है।" मुक्तिबोध इसे 'अच्छाई का पेड़' कहते हैं। मैं एकाग्रचित्त हो इस पदबंध पर मनन करने लगती हूँ। कटा-पिटा क्यों? इसलिए कि बुरी ताकतें संगठित होकर हमेशा अच्छाई को नष्ट कर डालना चाहती हैं? लेकिन रचयिता 'अच्छाई का पेड़' से आश्रय और छाया देने का गौरव क्यों छीन लेना चाहते हैं? पेड़ के बड़प्पन को रेखांकित करने के लिए छाया और संरक्षण जैसे गुणों का ही तो उल्लेख किया जाता है। विचार को बिंब में और बिंब को प्रतीक में ढाल कर अपनी संश्लिष्ट अवधारणाओं को पाठक तक संप्रेषित करने वाले मुक्तिबोध छाया और संरक्षण न दे पाने की अक्षमता को अच्छाई के पेड़ के साथ देखते हैं तो जरूर कुछ गहरा बताना चाहते हैं। मैं कहानी की गहराई में एक तह और नीचे उतर पड़ती हूँ। देखती हूँ, अपने ऐंठे बड़प्पन को बुजुर्गियत की झुर्रियों में छिपाए बरगद का पेड़ कितने ही पंथियों और पंछियों की शरणस्थली है। यहाँ शीतलता से सिहरता गुनगुना झुटपुटा है। जड़ों के जाल पर चौपाल जमा कर बैठी सभ्यता कितने ही स्थानीय फसादों का निबटारा यहीं कर रही है। मानो जीवन के बहाने परंपरा और विरासत को सँभाले रखने का अभयदान दे रहा हो पेड़। दूर-दूर तक वनस्पति की कोई इतर प्रजाति नहीं। बस, अपनी ही जड़ों को टहनी बना कर अपने चारों ओर के वर्गक्षेत्र को मजबूत करने का उपक्रम। विविधता और विरोध की कोई गुंजाइश नहीं। एक दृष्टि, एक विचार, एक उन्माद! जीवन इतना बेरंग, बेस्वाद, बेलहर तो नहीं ही होता। आश्रय और छाया (संरक्षण) देकर वैचारिक संकीर्णता को हठधर्मिता का, हठधर्मिता को सांगठनिक उन्माद का और उन्माद को विध्वंस के तांडव का रूप नहीं देना चाहते मुक्तिबोध। उनका 'अच्छाई का पेड़' गिरोहबंदी की हर घिनौनी चेष्टा का विरोध करता है। वह विपरीत परिस्थितियों में अडोल रह कर जिजीविषा और सृजन की अनवरतता का संवाहक है। वह अच्छाई की तलाश में निकले साधकों को अत्यल्प समय के लिए अपनी गोद में बैठ लेने की अनुमति देता है। फिर हौले से उनके ललाट का पसीना पोंछ उनके अवसाद के अँधेरों को अपने तीखे चिलचिलाते प्रकाश से बींध कर पुनः कर्मयोग में जुट जाने की प्रेरणा देता है। मुक्तिबोध की सत्यान्वेषण की साधना उन्हें एक साथ पथिक, साधक और अच्छाई का पेड़ बनाती है।

"सहानुभूति की एक किरण, एक सहज स्वास्थ्यपूर्ण मुस्कान का चिकित्सा संबंधी महत्व सहानुभूति के लिए प्यासी-लंगड़ी दुनिया के लिए कितना हो सकता है - यह वह जानता था। इसलिए मतभेद और परस्पर होने वाली विशिष्ट विसंवादी कटुताओं को बचा कर निकल जाता था।" (अँधेरे में)

यह है मुक्तिबोध का वैचारिक दर्शन। स्पेस देकर स्पेस लेना, और उस स्पेस में 'अच्छाई का पेड़' रोप देना। नम ऊबड़-खाबड़ जमीन को सीमेंट की बंजर निर्लज्जता से पाट देने वाली मानसिकता के साथ एक अनवरत युद्ध उनकी कहानियों की ताकत है, जो उनके भीतर भी सक्रिय है और बाहर पूँजी, सत्ता और धर्म के गठबंधन के साथ भी। मुक्तिबोध की आस्था यह मानने को तैयार नहीं कि व्यवस्था का अनुशासन और वर्जना का शास्त्र कहीं बाहर से थोपा जा सकता है। वह व्यक्ति के भीतर स्थित है - जड़ अहंकार के साथ फुंफकारता और हर अहम्मन्य जड़ता के खिलाफ मोर्चा लेता। मुक्तिबोध कड़े और दुर्बोध हैं क्योंकि पुचकार और मरहम-पट्टी की अपेक्षा में पास आई इनसानी कातरताओं को सहलाते नहीं, प्रोमीथियस बन कर अपने अंतर की लौ को आलोकित करते रहने की हिदायत देते हैं। अपने वक्त के सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक इतिहास की नब्ज टटोलते हुए वे कहानियों में संवेदना की तरलता लाते हैं, भावुकता की लिजलिजी चिपचिपाहट नहीं। सही मायनों में वे कालजयी रचनाकार हैं। उनकी कहानियाँ आज की इक्कीसवीं सदी की युवा-कहानी का विलोम भी रचती हैं जो मूल्यहीनता और अपसंस्कृति का रोना रोकर अवसरवादिता और समझौतापरस्ती को बेहया ठाठ के साथ जीवन-शैली बनाने की पैरवी कर रही है।

पुनश्चः कायदे से मुझे अपनी बात यहीं खत्म कर देनी चाहिए। लेकिन दो बातें और कहना चाहूँगी। लेख की लय के साथ चूँकि ये बातें नहीं घुलतीं, इसलिए अलग से, दो बिंदुओं में। सबसे पहले यह कि जीवन की विडंबनाओं के पूर्ण स्वीकार और संकल्पदृढ़ सक्रियता पर अगाध विश्वास ने मुक्तिबोध को नीलकंठ सरीखा व्यक्तित्व दिया है। इसे स्थूल अर्थ में दांपत्य समरसता के चित्रण में, और प्रतीकार्थ में जीवन-जगत के प्रति सामंजस्यपूर्ण दृष्टि के रूप में देखा जा सकता है। बेशक नायक आग से जली पत्नी के जख्मों पर बर्नोल लगाना भूल गया है, बेशक पत्नी 'एक बीमार छाया' की तरह उसकी स्मृति में कौंधती है, बेशक एक हिंसक बड़बड़ाहट द्वारा अपने आक्रोश को ठंडा करने की जुगत में पत्नी घर भर को संत्रस्त किए रहती है, लेकिन अंततः "एक ही जीवन-संघर्ष की प्रक्रियाओं में से गुजरने के कारण वे एक-दूसरे के मित्र तथा सहायक" (उपसंहार) ही हैं। "तुम मुझे छोड़ का मत जाया करो" (जलना) - नैरेटर पाता है कि पत्नी की यह कातर पुकार विश्वास और स्नेह की गूँज बन कर उसके भीतर से भी उठ रही है, और बूढ़े माँ-बाप और बच्चों के भीतर से भी, जिस कारण अभावग्रस्त घर एक आह्लादकारी ऐश्वर्य से जगमगा उठा है।

दूसरे, अतिरेकपूर्ण ऊटपटाँग हरकतों द्वारा हँसाने वाला जोकर उन्हें मनोरंजन की सामग्री नहीं, परवर्शन का प्रतीक लगता है। दरअसल स्थूलता की दीवार को बींध कर जहाँ कोमल मानवीय अहसास निष्कवच अवस्था में पड़े होते हैं, वहाँ जोकर के करतब घुटन, खौफ और घृणा की उत्पत्ति करते हैं। चूँकि परवर्शन एक अस्वाभाविक प्रवृत्ति है, इसलिए वह "मनुष्यता की सारी सभ्यता के पूरे ढाँचे" के चरमरा कर नीचे गिर पड़ने की वर्चुअल रिएलिटी रचती है। जोकर उस वर्चुअल रिएलिटी का प्रस्तोता है, जो किसी भी विवेकशील व्यक्ति के भीतर भय एवं घृणा की लहरें इसलिए नहीं दौड़ाता कि मनुष्य के परवर्ट होने के सत्य पर उँगली रखता है, वरन इसलिए कि तमाम सांस्कृतिक मुखौटों के नीचे "परवर्शन के प्रति उसका विशेष आकर्षण है।"

यह एक बार फिर अपने आप को तेज रोशनियों से दिपदिपाते आदमकद आईनों में जाँचने की चुनौती है। यानी कहानीकार मुक्तिबोध का अंतर्भूत सत्य!


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